रविवार

हर शाम मैं धुआँ धुआँ हो बिखर जाता हूँ ,
के कभी किसी शाम यह जलन तेरे प्यार की होगी .
हर शाम मैं पलकों से आँखों को भी सी जाता हूँ ,
के आँसू जो छलके मेरे होठों पे तेरे लिए खारेपन की निशानी होगी .
आँखें उलझ जाती है जो कभी तेरी आँखों के धागों से ,
हर शाम मैं पतंग सा कट के उड़ जाता हूँ ,
के कट ही ना जाऊ कभी तेरी नझर के मांझों से.
हर शाम मैं धुआँ धुआँ हो बिखर जाता हूँ ,
के मेरी ये जिद्द है अब हर शाम तेरी जुल्फ तले होगी.
हर शाम मैं खुद को एक याद बना बहा भी आता हूँ ,
के यादें जो बरसी तो यह बाढ तेरी यादों की होगी .
कभी तेरी पागलों सी बातों में तो कभी बेबात ही हँसी में ,
हर शाम मैं तो इनमे तेरी जुल्फों सा उलझ जाता हूँ ,
के सुलझु तो क्या रखा है गैरों की बातों में.
हर शाम मैं धुआँ धुआँ हो बिखर जाता हूँ ,
के साँसे जो तू लेगी तो यह खुशबू मेरी ही होगी .

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें