सोमवार
रविवार
हर शाम मैं धुआँ धुआँ हो बिखर जाता हूँ ,
के कभी किसी शाम यह जलन तेरे प्यार की होगी .
के कभी किसी शाम यह जलन तेरे प्यार की होगी .
हर शाम मैं पलकों से आँखों को भी सी जाता हूँ ,
के आँसू जो छलके मेरे होठों पे तेरे लिए खारेपन की निशानी होगी .
के आँसू जो छलके मेरे होठों पे तेरे लिए खारेपन की निशानी होगी .
आँखें उलझ जाती है जो कभी तेरी आँखों के धागों से ,
हर शाम मैं पतंग सा कट के उड़ जाता हूँ ,
के कट ही ना जाऊ कभी तेरी नझर के मांझों से.
हर शाम मैं पतंग सा कट के उड़ जाता हूँ ,
के कट ही ना जाऊ कभी तेरी नझर के मांझों से.
हर शाम मैं धुआँ धुआँ हो बिखर जाता हूँ ,
के मेरी ये जिद्द है अब हर शाम तेरी जुल्फ तले होगी.
के मेरी ये जिद्द है अब हर शाम तेरी जुल्फ तले होगी.
हर शाम मैं खुद को एक याद बना बहा भी आता हूँ ,
के यादें जो बरसी तो यह बाढ तेरी यादों की होगी .
के यादें जो बरसी तो यह बाढ तेरी यादों की होगी .
कभी तेरी पागलों सी बातों में तो कभी बेबात ही हँसी में ,
हर शाम मैं तो इनमे तेरी जुल्फों सा उलझ जाता हूँ ,
के सुलझु तो क्या रखा है गैरों की बातों में.
हर शाम मैं तो इनमे तेरी जुल्फों सा उलझ जाता हूँ ,
के सुलझु तो क्या रखा है गैरों की बातों में.
हर शाम मैं धुआँ धुआँ हो बिखर जाता हूँ ,
के साँसे जो तू लेगी तो यह खुशबू मेरी ही होगी .
के साँसे जो तू लेगी तो यह खुशबू मेरी ही होगी .
बुधवार
पढ़ना-लिखना सीखो
पढ़ना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालो
पढ़ना-लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालो
क ख ग घ को पहचानो
अलिफ़ को पढ़ना सीखो
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो
ओ सड़क बनाने वालो, ओ भवन उठाने वालो
खुद अपनी किस्मत का फैसला अगर तुम्हें करना है
ओ बोझा ढोने वालो ओ रेल चलने वालो
अगर देश की बागडोर को कब्ज़े में करना है
क ख ग घ को पहचानो
अलिफ़ को पढ़ना सीखो
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो
पूछो, मजदूरी की खातिर लोग भटकते क्यों हैं?
पढ़ो,तुम्हारी सूखी रोटी गिद्ध लपकते क्यों हैं?
पूछो, माँ-बहनों पर यों बदमाश झपटते क्यों हैं?
पढ़ो,तुम्हारी मेहनत का फल सेठ गटकते क्यों हैं?
पढ़ो, लिखा है दीवारों पर मेहनतकश का नारा
पढ़ो, पोस्टर क्या कहता है, वो भी दोस्त तुम्हारा
पढ़ो, अगर अंधे विश्वासों से पाना छुटकारा
पढ़ो, किताबें कहती हैं - सारा संसार तुम्हारा
पढ़ो, कि हर मेहनतकश को उसका हक दिलवाना है
पढ़ो, अगर इस देश को अपने ढंग से चलवाना है
क ख ग घ को पहचानो
अलिफ़ को पढ़ना सीखो
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो
शनिवार
वीरांगना महिला थी बिहार के आरा की धरमन बाई
स्वतंत्रता
संग्राम में पुरूषों ने जितना योगदान दिया है उसमें हमकदम बनकर महिलाओं ने
भी उनका सहयोग किया है। इतिहास भी इसका गवाह है, चाहे वो झांसी की रानी हो
या फिर बेगम हजरत महल। ऐसी ही एक वीरांगना महिला थी बिहार के आरा की धरमन
बाई। पेशे से तवायफ धरमन बाई को महान स्वतंत्रता सेनानी वीर कुंवर सिंह से
अकूत प्रेम था। अपने प्रेम की खातिर इस विरांगना ने अपनी शहादत दे दी थी।
कहा जाता है कि धरमन बाई और करमन बाई दो बहने थीं, जो आरा बिहार की तवायफ थी। बात 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय की है। इन दोनों का मुजरा काफी प्रसिद्ध था, जिसे देखने के लिए वीर कुंवर सिंह भी जाते थे। उसी दौरान इन दोनों से उनकी आंखे चार हुई। बाबू कुंवर सिंह इन दोनों से बेपनाह मोहब्बत करने लगे, लेकिन धरमन को वो अपने ज्यादा करीब पाते थे, शायद इसी वजह से उन्होंने धरमन से शादी कर ली।
यहां तक कहा जाता है कि बेपनाह मोहब्बत का ही नतीजा था कि करमन बाई के नाम पर कुंवर सिंह ने करमन टोला बसा डाला, जो आज भी विद्यमान है वहीं धरमन बाई के नाम पर धरमन चौक के अलावा आरा और जगदीशपुर में धरमन के नाम पर मस्जिद मस्जिद का निर्माण करवाया।
वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. नीरज सिंह कहते हैं कि धरमन बाई से बाबू कुंवर सिंह को सच्ची मोहब्बत थी। उस मोहब्बत को एक नाम देने के लिए उन्होंने धर्मन से शादी भी कर ली। स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में जहां जहां कुंवर सिंह गए साथ-साथ धर्मन भी गई। उसी दौरान मध्यप्रदेश के रीवा से काल्पी जाने के क्रम में अंग्रेजों से कुंवर सिंह का सामना हुआ। तब धर्मन ने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया और अपनी शहादत दे दी।
बाद में कुंवर सिंह रीवा से काल्पी होते हुए आजमगढ़ पहुंचे। वहां से वे बिहार के आरा के समीप स्थित जगदीशपुर जाने के लिए रवाना हुए तो अंग्रेजों ने उनपर हमला कर दिया। इस दौरान ग्रामीणों ने उनका भरपूर सहयोग किया और उन्हें गंगा पार कराने में मदद की। इस दौरान उनके हाथ में गोली भी लग गई। जब उन्होंने अपने साथियों को अपना हाथ काटने को कहा तो वे सब मना कर दिए ऐसे में कुंवर सिंह ने अपनी तलवार निकाली और अपने हाथ को काटकर गंगा को भेंट कर दिया।
डॉ. सिंह कहते हैं कि कटे हुए हाथ के साथ वो आरा पहुंचे औऱ सैनिकों की मदद से आरा नगर पर 23 अप्रैल को कब्जा कर लिया। उसके बाद जगदीशपुर के किले पर कब्जा जमाने के लिए अंग्रेजों के साथ जबर्दस्त युद्ध हुआ और वो 26 अप्रैल को शहीद हो गए। 23 अप्रैल को आरा नगर पर कब्जा जमाए जाने के कारण विजयोत्सव मनाया जाता है।
तो मर जायेगी तन्हाई..
मेरे बाद किधर जायेगी तन्हाई..
मैं जो मरा तो मर जायेगी तन्हाई..
मैं जो मरा तो मर जायेगी तन्हाई..
मै जब रो-रो के दरिया बन जाउंगा..
उस दिन पार उतर जायेगी तन्हाई..
उस दिन पार उतर जायेगी तन्हाई..
तन्हाई को घर से रुखसत तो कर दूं..
सोचूं, किस के घर जायेगी तन्हाई..
सोचूं, किस के घर जायेगी तन्हाई..
वीराना हूं, आबादी से आया हूं..
देखेगी तो डर जायेगी तन्हाई..
देखेगी तो डर जायेगी तन्हाई..
यूं आओ के पाओं की भी आवाज़ ना हो..
शोर हुआ तो मर जायेगी तन्हाई..
शोर हुआ तो मर जायेगी तन्हाई..
बुधवार
कत्ल का इश्तहार.
मुझे और नहीं ढोना है अब
ख़ामोशी का ताबूत
जिसमें बंद हैं सच के कंकाल
और आवाजों की बुझी मशालें
मेरी पीठ पर लाद जिसे
छोड़ देते हैं मुझे वे
अनिश्चय की भुरभुरी चट्टान पर
उनके ईश्वर के
हर गर्दन नापने के लिए बढ़े हाथ
मेरे हाथों में कोई धर्मग्रन्थ थमा
उकसाते हैं मुझे
झूठ को सच और सच को झूठ की
कब्र में दफना देने के लिए
और करते हैं इन्तजार
कब मेरी आवाज में
पैदा हो दरार
और मेरे गले में फूल मालाएं पहना
जुलूस की शक्ल में मुझे घुमायें
गली-गली, बाज़ार-बाज़ार
मेरे अंदर खमीरे आटे की तरह
लगातार फूल रही है एक गाली
मेरे हाथों में है संकल्प का चाकू
जिससे काट सकता हूँ
उनकी हर साजिश को
उनका जेहन उघाड़कर
उसमें भरे मवाद को
नंगा कर सकता हूं सरेआम
न मुझे तलाश है
उनकी खोखली आवाज में किसी क्रांति की
जिसके नाम पर वे
इकट्ठा करते हैं चन्दा
आती है उनके पसीने से तब
ताजे खून की गंध
तिलचट्टों की कतार के साथ
मैं चल जरूर रहा हूँ
लेकिन अपने पैरों से
मेरी आँखों के सामने
फैला है जो धुआँ
जानता हूँ
जिन चिमनियों से होकर आ रहा है
उनके नीचे सुलग रहा है
गीली आवाजों का जंगल
इसका अर्थ समझाने के लिए वे
ले जाते हैं मुझे
गैस चेम्बरों में बार-बार
फिर भी आग के लिए मेरी तड़प देख
तिलमिलाकर बदलते हैं पैंतरा
और स्कूल के रास्ते से
कर लेते हैं किसी बच्चे का अपहरण
फासला तय करने के लिए
पहन लूँ क्या उनकी नाप के जूते
या फिर प्रेम से निकलकर बच्चे का चित्र
लगा दूँ वहाँ
किसी के कत्ल का इश्तहार.
ख़ामोशी का ताबूत
जिसमें बंद हैं सच के कंकाल
और आवाजों की बुझी मशालें
मेरी पीठ पर लाद जिसे
छोड़ देते हैं मुझे वे
अनिश्चय की भुरभुरी चट्टान पर
उनके ईश्वर के
हर गर्दन नापने के लिए बढ़े हाथ
मेरे हाथों में कोई धर्मग्रन्थ थमा
उकसाते हैं मुझे
झूठ को सच और सच को झूठ की
कब्र में दफना देने के लिए
और करते हैं इन्तजार
कब मेरी आवाज में
पैदा हो दरार
और मेरे गले में फूल मालाएं पहना
जुलूस की शक्ल में मुझे घुमायें
गली-गली, बाज़ार-बाज़ार
मेरे अंदर खमीरे आटे की तरह
लगातार फूल रही है एक गाली
मेरे हाथों में है संकल्प का चाकू
जिससे काट सकता हूँ
उनकी हर साजिश को
उनका जेहन उघाड़कर
उसमें भरे मवाद को
नंगा कर सकता हूं सरेआम
न मुझे तलाश है
उनकी खोखली आवाज में किसी क्रांति की
जिसके नाम पर वे
इकट्ठा करते हैं चन्दा
आती है उनके पसीने से तब
ताजे खून की गंध
तिलचट्टों की कतार के साथ
मैं चल जरूर रहा हूँ
लेकिन अपने पैरों से
मेरी आँखों के सामने
फैला है जो धुआँ
जानता हूँ
जिन चिमनियों से होकर आ रहा है
उनके नीचे सुलग रहा है
गीली आवाजों का जंगल
इसका अर्थ समझाने के लिए वे
ले जाते हैं मुझे
गैस चेम्बरों में बार-बार
फिर भी आग के लिए मेरी तड़प देख
तिलमिलाकर बदलते हैं पैंतरा
और स्कूल के रास्ते से
कर लेते हैं किसी बच्चे का अपहरण
फासला तय करने के लिए
पहन लूँ क्या उनकी नाप के जूते
या फिर प्रेम से निकलकर बच्चे का चित्र
लगा दूँ वहाँ
किसी के कत्ल का इश्तहार.
गुरुवार
मैं मिट्टी में मिल जाऊंगा एक दिन।
तेरी चाहत में हद से गुजर जाऊंगा एक दिन,
प्यार होता है क्या ये दिखाऊंगा एक दिन,
तेरी संगदिली को सहते-सहते,
मैं अपनी जान से जाऊंगा एक दिन,
अपनी चाहते सारी तुझपे वार के,
प्यार करना तुझे भी सिखाऊंगा एक दिन,
जी ना पाएगी तु भी हो के जुदा मुझसे,
ऐसा प्यार तुझ से कर जाऊंगा एक दिन,
अंधेरो में ढूंढ़ती रह जाएगी मुझको,
ऐसी बेरूखी दिखलाऊंगा एक दिन,
खो कर मुझ को बहुत पछताएगी सनम तु,
वफा ऐसी तुझ से कर जाऊंगा एक दिन,
ऐसी दिवानगी से चाहूंगा तुझको,
भूल जाओगी तुम भी सारा जहान एक दिन,
जान तेरी भी लबों पर आ जाएगी,
बन के खाक जब मैं मिट्टी में मिल जाऊंगा एक दिन।
सोमवार
समुद्र की लहरें
समुद्र की लहरें
कितने जोश में
कितने वेग से
चली आतीं हैं
इतराती, मंडराती
किनारे की ओर।
कितने जोश में
कितने वेग से
चली आतीं हैं
इतराती, मंडराती
किनारे की ओर।
और रह जातीं हैं
अपना सर फोड़कर
किनारे की चट्टानों पर।
लहर ख़त्म हो जाती है
रह जाता है-
पानी का बुलबुला
थोड़ा-सा झाग।
अपना सर फोड़कर
किनारे की चट्टानों पर।
लहर ख़त्म हो जाती है
रह जाता है-
पानी का बुलबुला
थोड़ा-सा झाग।
लहरें निराश नहीं होतीं
हार नहीं मानतीं।
चली आती हैं
बार-बार, निरंतर, लगातार
एक के पीछे एक।
हार नहीं मानतीं।
चली आती हैं
बार-बार, निरंतर, लगातार
एक के पीछे एक।
एक दिन सफल होती हैं
तोड़कर रख देती हैं
भारी भरकम चट्टान को
पर फिर भी शांत नहीं होतीं
आराम नहीं करतीं।
तोड़कर रख देती हैं
भारी भरकम चट्टान को
पर फिर भी शांत नहीं होतीं
आराम नहीं करतीं।
इनका क्रम चलाता रहता है।
चट्टान के छोटे-छोटे टुकड़े कर
चूर कर देतीं हैं-
उनका हौसला, उनके निशान।
बना कर रख देतीं हैं
रेत
एक बारीक महीन रेत
समुद्र तट पर फैली
एक बारीक महीन रेत।
चट्टान के छोटे-छोटे टुकड़े कर
चूर कर देतीं हैं-
उनका हौसला, उनके निशान।
बना कर रख देतीं हैं
रेत
एक बारीक महीन रेत
समुद्र तट पर फैली
एक बारीक महीन रेत।
मज़ा आ रहा था उन्हें
परखते रहे वो हमें सारी ज़िन्दगी,
हम भी उनके हर इम्तेहान में पास होते रहे,
मज़ा आ रहा था उन्हें हमारी आंसुओं की बारिश में,
हम भी उनके लिए बिना रुके रोते रहे,
बेदर्द थे वो कुछ इस क़दर,
... नींद हमारी उड़ा कर खुद चैन से सोते रहे,
जिन्हें पाने के लिए हमने सब कुछ लुटा दिया,
वो हमें हर कदम पर खोते रहे,
एक दिन हुआ जब इसका अहसास उन्हें,
वो हमारे पास आकर पूरे दिन रोते रहे,
और हम भी खुदगर्ज़ निकले यारों,
के आँखे बंद करके कफ़न में सोते रहे.....
हम भी उनके हर इम्तेहान में पास होते रहे,
मज़ा आ रहा था उन्हें हमारी आंसुओं की बारिश में,
हम भी उनके लिए बिना रुके रोते रहे,
बेदर्द थे वो कुछ इस क़दर,
... नींद हमारी उड़ा कर खुद चैन से सोते रहे,
जिन्हें पाने के लिए हमने सब कुछ लुटा दिया,
वो हमें हर कदम पर खोते रहे,
एक दिन हुआ जब इसका अहसास उन्हें,
वो हमारे पास आकर पूरे दिन रोते रहे,
और हम भी खुदगर्ज़ निकले यारों,
के आँखे बंद करके कफ़न में सोते रहे.....
आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
मेरे गीतों को होठों से छू लो जरा
ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
वक़्त बे वक़्त यूँ ना लो अंगड़ाइयां, देखने वाला बेमौत मर जायेगा.
होंठ तेरे गुलाबी ,शराबी नयन.
संगमरमर सा उजला है , तेरा बदन.
रूप यूँ ना सजाया - संवारा करो, टूट कर आईना भी बिखर जायेगा.
ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
सारी दुनिया ही तुम पर, मेहरबान है.
देख तुमको फ़रिश्ते भी, हैरान हैं.
मुसकुरा कर अगर तुम इशारा करो , आदमी क्या - खुदा भी ठहर जायेगा.
ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
तुम तसव्वुर की रंगीन, तस्वीर हो .
सच तो ये है कि लाखों कि, तकदीर हो.
मेरे गीतों को होठों से छू लो जरा, खुद ब खुद भाव उनका निखर जायेगा.
ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
वक़्त बे वक़्त यूँ ना लो अंगड़ाइयां, देखने वाला बेमौत मर जायेगा.
होंठ तेरे गुलाबी ,शराबी नयन.
संगमरमर सा उजला है , तेरा बदन.
रूप यूँ ना सजाया - संवारा करो, टूट कर आईना भी बिखर जायेगा.
ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
सारी दुनिया ही तुम पर, मेहरबान है.
देख तुमको फ़रिश्ते भी, हैरान हैं.
मुसकुरा कर अगर तुम इशारा करो , आदमी क्या - खुदा भी ठहर जायेगा.
ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
तुम तसव्वुर की रंगीन, तस्वीर हो .
सच तो ये है कि लाखों कि, तकदीर हो.
मेरे गीतों को होठों से छू लो जरा, खुद ब खुद भाव उनका निखर जायेगा.
ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
बुधवार
भोजपुर जिला का इतिहास बड़ा ही गौरवर्पूर्ण रहा है यहाँ चप्पे -चप्पे पर इतिहास के पांवो के निशान कायम है इतिहास के पन्नों पर गौर करें तो महर्षि जनक,महर्षि विश्वामित्र,पुरुषोत्तम राम लक्ष्मण ,तिर्थकर महावीर ,गौतम बुध मैगास्थनीज़,फाहियान,ह्वेनसांग,
राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिकर ने कहा था की नारि तुम श्रद्धा हो विश्वास की शाम की सूर्यास्त होते ही अर्धविक्षिप्त नारियों व युवतियों के साथ हवस के दरिंदों की हैवानियत को आँखों के सामने देखने वाली पुलिस व प्रशाशन क्यूँ कुछ भी कहने व करने से कतरा रही है ? गुमनाम नारियों की आबरू को तार तार करते व उनके शरीर पर लगे दाग तथा खून लगे कपड़ों से सहज अनुमान लगाया जा सकता है की रात के अँधेरे में इनके साथ क्या किया जाता है ! इसके बावजूद भी अपनी मानसिक संतुलन खो चुकी ये अबलायें सब कुछ सहन करने के बाद भी खामोश रहती हैं ! यहाँ तक की कुछ युवतियां समय से काफी पहले ही गर्भवती हो जमाने की यातना सहने को विवश है ! दिसंबर 2009 में सामाजिक अधिकारिता मंत्रालय के जारी आदेश पर बिहार सरकार के मुख्य सचीव द्वारा राज्य के सभी जिलाधिकारियों को पत्र भेजकर भीख मांगकर गुजारा करने वालों ,फूटपाथ पर रात गुजारने वालों ,निः शक्त लोगों ,अर्धविक्षिप्त लोगों को चिन्हित कर पुनर्वास योजना के तहत बेहतर इलाज़ ,रोजगार की व्यवस्था परिजनों तक पहुंचाने व खान पान दवा आदि की व्यवस्था सुनिश्चित किये जाने का फरमान जनवरी 2010 में जारी किया गया था !
इसके वावजूद भी इस जिले की आरा ,बिहियां व पिरो रेलवे स्टेशन सहित जगदीशपुर आरा बिहिया पिरो सन्देश गड़हनी कोइलवर बडहरा और हसनबाज़ार के बाज़ारों में सड़कों पर दिन रात विचरण करने वाली इन नारियों को देखने के बाद भी प्रशाशन के अधिकारियों की आँखों से ये सब कुछ दिखाई क्यूँ नहीं देता है क्या सही में दीखाई नहीं देता या देखकर भी नहीं देखना चाहते है संवेदन शून्य पुलिस व प्रशाशन की आँखों के सामने जिले के प्रमुख शहरों व रेलवे स्टेशनों में दर्जनों अर्धविक्षिप्त नारियों व युवतियों को बहसी दरिंदों द्वारा कब तक हवस का शिकार बनाया जाता रहेगा ? केंद्र व राज्य सरकार द्वारा जारी आदेश इनके लिए कब तक लागू किये जायेंगे ? इन सवालों का जवाब देने वाला कोई नहीं है आखिर क्यूँ ?
प्यार की भाषा
कोशिश करना तुम्हारे बाद ये भाषा ख़त्म हो जाए
इन दिनों सांस तभी चलती है जब पेंसिल अंगुलियाँ रिवाल्भ करतीं है!
मुझे प्रेम से पीछे और इसके आगे कोई सभ्यता, कोई गली, कोई प्रथा नजर नहीं आती
तुम जब चाहो मेरे दिल के 52 पत्ते गिन लो दोस्तों में बटा हुआ भी साबुत हूँ मैं,
मुझे आज भर फुर्सत है कल मुझे मरने का भी वक़्त नहीं, चलते चलते मैं कहीं
अपने पाँव गिरा बैठा हूँ ! मुझे छुओ गूंगे की तरह मुझे चख लो धरती पर चखे गए सबसे पहले फल की तरह
मैं प्यार से लबालब हूँ प्यार का प्यासा, नहीं मालुम है मुझे प्यार की परिभाषा,
कम दिन हूँ इधर मेरे होने का शोर बहुत है ...मुझे ख्वाहिश भी नहीं मेरे जाने के बाद लोग मुझे समझे
तुम कोशिश करना तुम्हारे बाद ये भाषा ख़त्म हो जाए
शनिवार
यहां शिक्षा पर भूख हावी हो रही है।
यहां शिक्षा पर भूख हावी हो रही है।
बाल मजदूरी रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश व प्रशासनिक अधिकारियों की कोशिश ईट भट्ठों पर हवा में उड़ती प्रतीत होती हैं। यहां काम कर रहे मजदूरों के बच्चों का बचपन अक्सर यहीं से शुरू होकर यहीं समाप्त हो जाता है। हालांकि, कुछ सरकारी प्रयासों के बाद कुछ बंधुआ मजदूरों को आजादी जरूर मिली है। लेकिन, वास्तव में आज भी यहां काम कर रहे हजारों मजदूरों का बचपन यहीं झुलस कर समाप्त हो जाता है।
जिला के ईट भट्ठों पर बाल मजदूरी रोकने के प्रयासों की कोशिशें महज फाइलों तक ही सीमित रह गई है। जिलाभर में 100 से अधिक ईट भट्ठा पर कार्य चलता है। हाईकोर्ट के आदेशों के बाद भी अधिकांश भट्ठों पर बाल मजदूरी चल रही है। ईट भट्ठों पर निगरानी रख रहे अधिकारियों ने बताया कि अक्सर टीम जब भी निरीक्षण पर जाती है, तो यहां कार्य कर रहे मजदूर ही सच्चाई नहीं बताते। वे निजी स्वार्थ के चलते इन्हें अपने साथ काम में लगा कर रखते हैं। मुख्य रूप से ईट भट्ठों पर निगरानी का कार्य लेबर अधिकारी पर होता है। भट्ठा मजदूरों को प्रति हजार लगभग 270 रुपये ईटों के रुप से अदायगी होती है। इसमें अधिक धन कमाने के चक्कर में यहां काम कर रहे मजदूर इस काम में लालच वश अपने बच्चों को लगा देते हैं। सरकारी योजनाओं के अनुसार ईट भट्ठों पर लगने वाले बच्चों के लिए पाठशालाओं को भी चलाया गया था, लेकिन यह योजना भी दम तोड़ चुकी है। इससे इस दिशा में व्यापक सुधार नहीं हो पाया है।
बेशक, केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय रोजगार गारटी योजना शुरू करने के साथ शिक्षा का अधिकार कानून लागू कर दिया हो, लेकिन ईट भट्ठों मे कार्यरत मजदूरों व उनके बच्चों की सुध लेने वाला कोई नहीं है। यहां के मजदूर दिनरात मेहनत के बावजूद अपने और बच्चों के तन पर कपड़ा व दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पा रहे। सरकार की महत्वाकाक्षी योजनाओं की जमीनी हकीकत यह है कि योजनाओं के लाभ से मजदूर वर्ग कोसों दूर है।
हैरानी की बात है कि, यहाँ के ईट भट्ठों पर कार्यरत मजदूरों को मनरेगा योजना व शिक्षा का अधिकार कानून के बारे में जानकारी ही नहीं है। यहां कार्य कर रहे बच्चों की हालत यह है कि वे जी तोड़ मेहनत करने के बावजूद अपना जीवन बेहतर ढंग से बसर नहीं कर पा रहे। हालात यह है कि, मजदूर अपने बच्चों को स्कूल भेजने की अपेक्षा उन्हें अपने साथ कार्य में संलग्न कर रहे है।
आरा बक्सर मेन रोड पर एक ईट भट्ठे पर कार्यरत मजदूर परिवारों के लगभग आधा दर्ज़न से अधिक बच्चे है। स्कूल जाने की उम्र में ये सभी अपने परिजनों के साथ मिलकर ईटे बनाने का काम करते हैं। प्रवासी मजदूर बिंदी, राजा व जुल्म सिंह आदि ने बताया कि गरीबी की मार के आगे कोई जोर नहीं चलता। मजदूरों ने बताया कि उन्हें सरकार द्वारा किसी प्रकार की चिकित्सा सुविधा प्रदान नहीं की जा रही। आसपास के कस्बे या गाव से डॉक्टर आते है, जो महगे पड़ते है और समुचित इलाज भी नहीं मिलता। इसके अलावा सरकार के अभियानों के बारे में भी उन्हे अवगत नहीं कराया जाता। यहां के बच्चों से शिक्षा तो कोसों दूर है। ईट बनाने का सीजन तीसरे मास में प्रवेश कर चुका है, लेकिन अभी तक किसी भी अधिकारी ने इस बारे कोई जानकारी नहीं दी है। स्थानीय सामान्य अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सा अधिकारी डॉ. गिरी राज शर्मा ने बताया कि खसरा रोधी अभियान के तहत प्रखंड के गाव में दिन निर्धारित किया गया है। गाव के पास लगते ईट भट्ठे पर तय दिन को ही खसरा रोधी टीका लगाया जाएगा।
मजदूर कल्याण की लंबी-चौड़ी सरकारी योजनाएं प्रखंड में दम तोड़ रही है। मजदूरों को इनका कितना लाभ मिल पाता है, यह ईट भट्ठों पर कार्यरत मजदूरों की हालत से सहज ही देखा जा सकता है। ईट भठ्ठा मालिकों की आधी अधूरी सुविधाओं के सहारे नरकीय जीवन जीना पड़ता है। महंगाई की आग में झुलस रहे मजदूरों को जब भी काम मिलता है, तब ही दो जून की रोटी नसीब होती है।
क्षेत्र में करीब चार दर्जन ईट भट्ठे है, जहा सैंकड़ों मजदूर परिवार कार्य कर रहे है। इस क्षेत्र में पहले भी ईट भट्ठा मालिकों पर मजदूरों को बंधक बनाने का आरोप लग चुका है। वहीं प्रशासन का सर्व शिक्षा अभियान के तहत किताबें वितरित करने की कार्रवाई भी पूरी नहीं हो पाती। हालांकि, स्वास्थ्य विभाग मोबाइल टीम भेज कर पोलियो ड्राप पिलाने की औपचारिकता पूरी कर लेते हैं। मजदूरों ने बताया उनका गुजारा भट्ठा मालिक के सहारे हो रहा है। इन दिनों काम चल रहा है। बरसात व गर्मी के मौसम में तो उनके सामने भूखा मरने की नौबत आ जाती है। मजदूरों ने बताया कि पाच लोगों को 15 दिन काम करने पर पाच हजार रुपये मिलते हैं, जिनसे उनके परिवार का गुजारा नहीं हो पाता। भट्ठा मालिक के दिए गए सुविधाहीन निवास पर उन्हें अपना जीवन गुजारना पड़ता है। प्रशासन की ओर से बच्चों को एक-दो बार ही किताबें दी गई है, बिजली-पानी की सुविधा तो दूर की बात है। इसी के साथ मजदूरों के बच्चों अबदुल, कबीर, अब्दूल समीर व सायना ने बताया कि उनका मन भी पढ़ाई करने का करता है। गरीबी के कारण वह पढ़ाई नहीं कर पाते।
जान जोखिम में डाल दो वक्त की रोटी जुगाड़ रहे है मासूम
जान जोखिम में डाल दो वक्त की रोटी जुगाड़ रहे है मासूम
पापी पेट व गरीबी आदमी को न जाने क्या-क्या करने के लिए मजबूर कर देती है। इसका ताजाउदाहरण आजकल लोगों को बक्सर की सड़कों पर सरेआम देखने को मिल रहा है। स्कूल जाने कीउम्र में एक छोटी बच्ची अपने पेट की आग को बुझाने के लिए दो बासों के बीच झूलते एक रस्से परचलकर लोगों का मनोरजन करती है।
उक्त लड़की ने उस समय दर्शकों की खूब तालिया बटोरी जब उसने सिर पर कई लुटिया रखकरसाइकिल के चक्के के साथ रस्सी पर चलने का करतब दिखाया।लड़की के पिता जगदीश साह नेबताया कि वह झारखण्ड का रहने वाला है। वक्त की मार से लड़कर अपने परिवार का गुजारा चला रहाहै। उसने बताया कि उसके पास तीन बच्चे है, जिनमें कल्याणी सबसे बड़ी है। गरीबी के चलते उसेअपने बच्चों से जोखिम से भरे ऐसे करतब करवाने पड़ रहे है। जबकि उसका भी मन करता है कि वहअपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाकर उन्हे कुछ बना सके। लेकिन, वह इतना गरीब है कि अपनेबच्चों को पढ़ाने में असमर्थ है अलबत्ता बच्चों द्वारा ही लोगों को करतब दिखाने से उसे जो रुपया मिलता है, उससे ही वह अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहा है। उसने रूंधे स्वर में कहा किकिसका मन करता है कि वह अपने छोटे-छोटे बच्चों से ऐसे जोखिम भरे खेल करवाकर उनकीजिन्दगी को दाव पर लगाए। लेकिन गरीबी ऐसी चीज है, जो व्यक्ति को कुछ भी करने के लिए मजबूरकर देती है।
उसने बताया कि न तो उसके पास रहने को छत है और न ही बच्चों को दो वक्त की रोटी देने का कोईजुगाड़। लोगों को खेल दिखाकर यदि कुछ मिल जाता है, तो वह उससे ही अपने बच्चों कोखिला-पिला पाता है। जगदीश की पत्नी दुर्गावती ने कहा की अब यह उनका पुश्तैनी धधा बन चुकाहै, जिसे सारे परिवार ने दिल से स्वीकार कर लिया है क्योंकि उनके पास इससे ज्यादा करने के लिएकुछ है भी तो नहीं।
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